और ध्यान रहे, बहुत बातें है इसमें, जो खयाल में ले लेने जैसी है। जब तक कोई स्त्री स्वयं नग्न न होना चाहे, तब तक इस जगत में कोई पुरूष किसी स्त्री को नग्न नहीं कर सकता है, न हीं कर पाता है। वस्त्र उतार भी ले, तो भी नग्न नहीं कर सकता है। नग्न होना बड़ी घटना है वस्त्र उतरने से निर्वस्त्र होने से नग्न होना बहुत भिन्न घटना है। निर्वस्त्र करना बहुत कठिन बात नहीं है, कोई भी कर सकता है, लेकिन नग्न करना बहुत दूसरी बात है। नग्न तो कोई स्त्री तभी होती है, जब वह किसी के प्रति खुलती है स्वयं। अन्यथा नहीं होती; वह ढंकी ही रह जाती है। उसके वस्त्र छीने जा सकते है। लेकिन वस्त्र छीनना स्त्री को नग्नं करना नहीं है।
और बात यह भी है कि द्रौपदी जैसी स्त्रीं को नहीं पा सकता दुयोर्धन। उसके व्यंग तीखे पड़ गए उसके मन पर। बड़ा हारा हुआ है। हारे हुए व्यक्ति--जैसे कि क्रोध में आए हुई बिल्लियों खंभे नोचने लगती है। वैसा करने लगते है। और स्त्री के सामने जब भी पुरूष हारता है--और इससे बड़ी हार पुरूष को कभी नहीं होती। पुरूष से लड़ ले, हार जीत होती है। लेकिन पुरूष जब स्त्री से हारता है। किसी भी क्षण में तो इससे बड़ी हार नहीं होती है।
तो दुर्योधन उस दिन उसे नग्न करने का जितना आयोजन करके बैठा है, वह सारा आयोजन भी हारे हुए पुरूष मन का है। और उस तरफ जो स्त्री खड़ी है हंसने वाली, वह कोई साधारण स्त्री नहीं है। उसका भी अपना संकल्प है अपना विल है। उसकी भी अपनी सामर्थ्य है; उसकी भी अपनी श्रद्धा है; उसका भी अपना होना है। उसकी उस श्रद्धा में वह जो कथा है, वह कथा तो काव्य है कि कृष्ण उसकी साड़ी को बढ़ाए चले जाते है। लेकिन मतलब सिर्फ इतना है कि जिसके पास अपना संकल्प है, उसे परमात्मा का सारा संकल्प तत्काल उपलब्ध्द जाता है। तो अगर परमात्मा के हाथ उसे मिल जाते हे, तो कोई आश्चंर्य नहीं।
तो मैंने कहा, और मैं फिर कहता हूं, द्रौपदी नग्न की गई, लेकिन हुई नहीं। नग्न करना बहुत आसान है, उसका हो जाना बहुत और बात है। बीच में अज्ञात विधि आ गई, बीच में अज्ञात कारण आ गए। दुर्योधन ने जो चाहा, वह हुआ नहीं। कर्म का अधिकार था, फल का अधिकार नहीं था।
यह द्रौपदी बहुत अनूठी है। यह पूरा युद्ध हो गया। भीष्म पड़े है शय्या पर--बाणों की शय्या पर--और कृष्ण कहते है पांडवों को कि पूछ लो धर्म का राज, और वह द्रौपदी हंसती है। उसकी हंसी पूरे महाभारत पर छाई हे। वह हंसती है कि इनसे पूछते है धर्म का रहस्य, जब में नग्न की जा रही थी, तब ये सिर झुकाए बैठे थे। उसका व्यंग गहरा है। वह स्त्री बहुत असाधारण है।
काश, हिंदुस्ताहन की स्त्रियों ने सीता को आदर्श न बना कर द्रौपदी को आदर्श बनाया होता तो हिंदुस्तान की स्त्री की शान और होती।
लेकिन नहीं, द्रौपदी खो गई है। उसका कोई पता नहीं है।खो गई। एक तो पाँच पतियों की पत्नी है। इसलिए मन को पीड़ा होती है। लेकिन एक पति की पत्नी होना भी कितना मुश्किकल है, उसका पता नहीं है। और जो पाँच पतियों को निभा सकती हे, वह साधारण स्त्री नहीं है।असाधारण है, सुपरव्हुमन है। सीता भी अतिमानवीय है लेकिन ट्रू व्हुमन के अर्थों में। और द्रौपदी भी अतिमानवीय है, लेकिन सुपर ह्यूमन के अर्थों में।
पूरे भारत के इतिहास में द्रौपदी को सिर्फ एक आदमी ने ही प्रशंसा दी है। और एक ऐसे आदमी ने जो बिलकुल अनपेक्षित है। पूरे भारत के इतिहास में डाक्टर राम मनोहर लोहिया को छोड़कर किसी आदमी ने द्रौपदी को सम्मान नहीं दिया है। हैरानी की बात है मेरा तो लोहिया से प्रेम इस बात से हो गया कि पाँच हजार साल के इतिहास में एक आदमी, जो द्रौपदी को सीता के ऊपर रखने को तैयार है।
ओशो, गीता--दर्शन--भाग-1, अध्याय--1--(प्रवचन--14)