समलेंगिकता के बाज़ार का काला कुचक्र - अनुज अग्रवाल
Monday, September 10, 2018 IST
अब चूंकि समलेंगिकता को भारत मे कानूनी मान्यता मिल गयी है ऐसे में सोशल मीडिया पर इसका समर्थन करते हजारों वीडियो,यूट्यूब लिंक, फ़ोटो व पोस्ट आनी शुरू हो जाएंगी। नई पीढ़ी इनकी ओर आकर्षित होकर समलैंगिक संबंधों की ओर बढ़ने लगेगी। बाजारू ताकते इनको अब अपने अधिकारों के लिए उकसाने लगेंगी। शादी, बच्चे , संपत्ति व बीमे आदि के हक़ के कानूनों की मांग उठने लगेंगीं। कुछ एनजीओ इनके समर्थन के लिए आगे आने लगेंगी। मीडिया में इनके अधिकारों के लिए नई बहस, आंदोलन व पीआईएल के खेल शुरू होते जाएंगे। अगले कुछ ही बर्षों में कुछ लाख लोगों का भारतीय समलैंगिक समुदाय कुछ करोड़ तक पहुंचा दिया जाएगा और ये एक बड़े वोट बैंक में बदल जाएंगे। ऐसे में कोई भी राजनीतिक दल इनके साथ खड़ा होने में नहीं हिचकेगा।
ऐसे में यह समझना जरूरी है कि ऐसा क्यों होगा और बाज़ार की कुछ ताकते इनके साथ क्यों है?
किशोरावस्था व युवाओं का मनोविज्ञान कुछ अलग होता है। इस अवस्था मे उनके शरीर में हार्मोन्स का तीव्र प्रवाह होता है जो उनकी यौन उत्कंठा को बढ़ा देता है।आर्थिक, धार्मिक-सामाजिक परिस्थितियों, बौद्धिक अपरिपक्वता, वैचारिक भिन्नता,रूप , रंग,आकर, सोच, व्यवहार व जीवन शैली की भिन्नता एवं जीवन संघर्ष के कारण विपरीत लिंगी का साथ मिलना कई बार मुश्किल हो जाता है। ऐसे में कोई निकट का मित्र ज्यादा पास आ जाता है। इस निकटता व परिस्थितियों को पश्चिमी बाज़ार ने उत्पाद बना दिया है। साहित्य, सोशल मीडिया व संचार माध्यमों के माध्यम से समान लिंगी से निकटता को शारिरिक निकटता में बदलने को न्यायोचित ठहराया जाता है। इसके लिए मुठ्ठीभर विकृत शरीर से जन्मे लोगों को रोल मॉडल बनाकर पेश किया जाता है। यानि प्राकृतिक रूप से रुग्ण व विकार लिए पैदा लोगों के माध्यम से सामान्य लोगो को समलेंगिकता की ओर धकेला जाता है। इस काम मे लगी कम्पनियों का प्रमुख काम सामान्य लोगों के असामान्य काम को ग्लोरीफाई करना होता है जो ये मीडिया व मनोरंजन जगत के माध्यम से करते हैं और न्यायपालिका को ख़रीद अपने हितों के अनुरूप फैसले कराते हैं।
क्या हैं बाजार को फायदे?
अप्राकृतिक कार्य करने के लिए अनेक सुरक्षा उपाय व बिशेष जैल व टॉयज की आवश्यकता होती है। साथ ही अतिरिक्त शक्ति व ऊर्जा की। ऐसे में बिशेष तेल, जैल, दवाइयों, ड्रग्स, नशे, ड्रेस का बाज़ार खड़ा हो जाता है। जब उत्पाद होगा तो विज्ञापन भी होगा। ऐसे में टीवी व फिल्मी कलाकारों व मॉडलिंग का नया बाज़ार खड़ा हो जाता है। प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक व सोशल मीडिया पर इन उत्पादों के विज्ञापन का बाजार उनको अतिरिक्त आय कराता है। किशोरों व युवक युवतियों को समलेंगिकता पर आधारित पोर्न फिल्में दिखाई जाती हैं जिससे पोर्नोग्राफी का बाज़ार खड़ा होता है। यह काम नशे के बिना करना मुश्किल होता है। इसलिए नशे, शराब, ड्रग्स आदि का सेवन बढ़ जाता है। कुछ बर्षों बाद युवक व युवती विवाह, संपत्ति के रगड़े में पड़ते है तो लेजिस्लेशन का बाजार खड़ा हो जाता है। उससे भी भयानक स्थिति तब आती है जब कुछ समय बाद इन लोगों को अपनी भूल और कृत्रिम जीवन की सीमाओं का अहसास होता है व वे इससे निकलने को बेताब होते हैं मगर तब तक देर हो चुकी होती है। परिवार साथ छोड़ देता है व साथी बीमार या बेबफा हो जाता है। ऐसे में अलग थलग व अकेले होने से नशे व ड्रग्स की खपत बढ़ जाती है, अनेक बीमारियों व एड्स आदि से ग्रसित हेल्थ माफिया के हत्थे चढ़ जाता है। खर्चे पूरे करने के लिए जिगालो, कॉलगर्ल बन जाते हैं या पोर्नस्टार या फिर ड्रग्स पैडलर। यानि दुनिया के सबसे बड़े व सबसे गंदे धंधो के चक्रव्यूह में फंसकर कीड़े मकोड़े जैसे जीवन खत्म कर देते है। शायद .01% ऐसे होते हैं जो शीर्ष पर पहुंच जाते हैं, ऐसे लोगों को मुखोटा बनाकर कुछ हजार लोग पूरी दुनिया में यह तीसरा जेंडर पैदा करवाकर शोषण की चक्की में पीसते रहते हैं। दुःखद है कि अब भारत भी इनके षडयंत्रो का शिकारी बन गया है। अपनी अध्यात्म,ज्ञान व कर्म परंपरा को पुनः जाग्रत कर विश्वगुरू बनने का सपना देखने वाले सनातनियो का देश अब शीघ्र ही मानव रूपी पशुओं, भाँडो, रांडॉ , दोगलों व मीलों का देश बन जायेगा।
अनुज अग्रवाल
संपादक, डायलॉग इंडिया
महासचिव, मौलिक भारत
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